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नमो भगवते

देवेश सिंगी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3099
आईएसबीएन :81-8361-056-0

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पौराणिक कथाओं की सम-सामयिक सरस प्रस्तुति....

namo bhagvate devesh Singhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय समाज और जीवन को पुराण कथाओं ने किन्हीं भी अन्य धर्मग्रंथों की तुलना में ज़्यादा प्रभावित किया है। इसका कारण है, नये चिन्तनों और जीवन मूल्यों के आत्मसात करने की इनकी अद्भुत क्षमता।
देवेश सिंगी ने इन कथाओं को पहचानते हुए इन्हें समकालीन मानवीय विवेक के अनुरूप ढालने का प्रयत्न किया है।

इन कथाओं के प्रसंग व पात्र ‘हमारे जैसे है, हम ही हैं’। अपने इस विश्वास को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने इन प्रसंगों को सबसे पहले चमत्कारिक चक्रव्यूह से मुक्त किया है। इनके पात्रों की यथार्थवादी कल्पना की है। दूसरे शब्दों में, इन कथाओं के प्रसंग व पात्र अलौकिक हैं परन्तु यहाँ इनकी प्रस्तुति पूरी तरह लौकिक है। पाठक पाएँगे हमारे आदि देवी देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती न केवल सरल और सहज हैं वरन् हम में ही समाहित हैं।

आज भी पुराण-काल (लगभग दो से चार हजार साल पूर्व) में लिखी कथाएँ लोगों को याद हैं और प्रभावित करती हैं। मनोरजंन के साथ ही ये कहानियाँ जीवन के उत्तम और निकृष्ट प्रशंसनीय और निंदनीय दोनों पहलुओं को दिखाती हैं, विचारों को गति व प्रेरणा देती हैं।

नमो भगवते


गणेश ने आकर शिकायत की, ‘‘पिताजी निमन्त्रित कर के भी कुबेर ने मुझे भरपेट भोजन नहीं करवाया, मुझे कितनी भूख लगी है।’’
शिव हँस पड़े बोले, ‘‘माता, के बिना तुम्हें संसार में कोई तृप्त नहीं कर सकता है। जाओ अन्दर जा कर भोजन करो, माता भोजन बनाकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं।’’
तब तक देवी पार्वती स्वयं भोजन की थाली सजाकर बाहर आ गईं। पार्वती ने बड़े स्नेह से बालक गणेश के सिर पर हाथ फेरा। फिर अपने हाथ से दो ग्रास बालक गणेश को खिलाए। गणेश ने अघाकर डकार ली और तीसरा कौर खाने से इनकार कर दिया। पार्वती पुकारती रहीं, आग्रह करती रहीं, मनाती रहीं, परन्तु गणेश दौड़कर दूर भाग गए।
शिव ने मुस्करा कर कुबेर को देखा, कुबेर ने सिर झुका लिया। बोला, ‘‘सचमुच ख्याति की कामना से परोसे गए भोजन में यह रस व स्वाद कहाँ था जो इन दो ग्रास में है। मैं ऐश्वर्य की मद में अन्धा कुबेर इतना ही नहीं समझ सका कि तृप्ति स्नेह व निस्काम भाव से मिलती है। मेरे अभिमान ने संसार में मुझे हँसी का पात्र बना दिया।

यह पुस्तक क्यों ?

धर्मपरायण हमारे देश में पौराणिक कथाओं को अगाध आस्था के साथ पढ़ा व सुना जाता है। सनातन धर्म की धरोहर इन कथाओं को सदियों से घर-घर में दोहराया जाता है। प्रवचनकारों ने इनका सार्वजनिक पठन-पाठन किया है तो आचार्यों ने इन्हें दर्शन का आधार बनाया है। आज जो फेंटेसी कथाएँ खूब पढ़ी जाती हैं वे इनके आगे बहुत बौनी लगती हैं क्योंकि धर्म के प्रति आस्था इनकी अविश्वसनीयता पर लगे सारे प्रश्नचिह्न स्वयं मिटा देती है।

राधाकृष्ण प्रकाशन ने अपने लम्बे कार्यकाल में कहानियों व उपन्यासों के माध्यम से कई बार इन पौराणिक कथाओं को जन-जन तक पहुँचाया तो इनकी यह पुनरावृत्ति क्यों ? इस सवाल का जवाब है-इन कथाओं के प्रसंग व पात्र ‘हमारे जैसे हैं, हम ही हैं’। अपने इस विश्वास को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने इन प्रसंगों को सबसे पहले चमत्कारिक चक्रव्यूह से मुक्त किया है। इनके पात्रों की यथार्थवादी कल्पना की है। दूसरे शब्दों में, इन कथाओं के प्रसंग व पात्र अलौकिक हैं परन्तु यहाँ इनकी प्रसंग व पात्र अलौकिक हैं परन्तु यहाँ इनकी प्रस्तुति पूरी तरह मौलिक हैं। पाठक पाएँगे कि हमारे आदि देवता-ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती न केवल सरल व सहज हैं वरन् हम में ही समाहित हैं। हमारे व इन देवी-देवताओं के बीच समानता की मौलिक कल्पना ही इस पुस्तक के लेखन व प्रकाशन की प्रेरणा है।
हमें विश्वास है कि उन पाठकों को यह प्रयास पसंद आएगा जो आस्था को अंधविश्वास मानकर पौराणिक कथाओं को ‘कल्पना-संसार’ मानते हैं। वे पाएँगे कि युग बदला है, दुनिया बदली है, हम बदले हैं, परन्तु मानवीय सोच ऐसा स्थायी भाव है जिसे सतत् गतिमान समय भी बदल नहीं पाता है। अणु के समान यह अक्षुण्ण है।

-अशोक महेश्वरी

अपनी बात


पुराणों की कथाएँ सुनने व पढ़ने का मुझे बचपन से शौक रहा है। मन में एक धारणा बनी कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती ये हमारे आदि देवता क्रमशः सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण वैभव, ज्ञान व शक्ति के स्वामी हैं, परन्तु अकेला मानव ऐसा प्राणी है जिसमें ये सभी गुण एक साथ विद्यमान हैं। इसी सोच में विचार बना कि यदि मानवीय सोच व स्वभाव हमारे इन आदि देवताओं में भर दिए जाएँ और वे भी हमारे जैसी गलतियाँ करें, समस्याओं में उलझें, परेशान हों, मदद के लिए गुहार लगाएँ, कभी मदद करें कभी कन्नी काटें। आपस में आमोद-प्रमोद, हास-परिहास भी करें। तब ये पौराणिक कथाएँ हमारे साथ होती रहती सामान्य, असामान्य घटनाओं जैसी लगेंगी।

दैवीय शक्तियाँ यथा प्रीति, सुख, सुकृत, कोमलता, वचन, पोषण चलन, विमर्श आदि और आसुरी शक्तियाँ यथा काम, क्रोध, शोक, बैर, भय, दैत्य, दुष्कृत, लोभ, दम्भ, कपट आदि मनुष्य के सहज मनोभाव व प्रवृत्तियाँ हैं। दैवीय और आसुरी दोनों शक्तियों के सामंजस्य व सन्तुलन का नाम ही मनुष्यता है। आसुरी शक्ति बढ़ी तो मनुष्य असुर बन गया और दैवीय शक्ति बढ़ी तो वही देवता कहलाने लगा। मुझे लगता है कि इस पौराणिक कथाओं का छिपा हुआ उद्देश्य मनुष्य में यही समभाव व संतुलन पैदा करने का है। निश्चित ही मनुष्यता इन दोनों से श्रेष्ठ है। देवता मनुष्य बनने के लिए तरसते हैं। देवताओं में अकेले विष्णु अवश्य अवतार लेकर मनुष्यता की विविधता का आनन्द लेते हैं और अवतार रूप में समाज में बढ़ती आसुरी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाकर सही जीवन जीने की ओर अग्रसर करते हैं।

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा कठोर साधना व तपस्या के अनुरूप वरदान देते हैं, परन्तु यही वरदान संवेदना खोकर जब आसुरी प्रवृत्तियों को अधिक बलवान करके समाज व मानवीयता को नुकसान पहुँचाता है, तब पालनकर्ता अजेय विष्णु व कल्याण स्वरूप शिव स्वयं उसका संहार करने को तत्पर हो जाते हैं। संसार इसी तरह चलता है। सब कुछ विज्ञान से प्राप्त उपलब्धियों के उपयोग और दुरुपयोग की तरह।
एक बात जिसने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया कि पुराण-काल (लगभग दो से चार हजार साल) में लिखी ये कथाएँ आज भी लोगों को याद है, उन्हें प्रभावित करती है। यहाँ तक कि इनके पात्रों को ईश्वर का साकार रूप मानकर मंदिर में स्थापना करके वे भाव विभोर होकर इनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वरदान की कामना करते हैं। मन में भय रखकर अपने अपराधों के लिए क्षमा-याचना करते हैं। अतः उन्हें केवल कथाएँ न कहकर अपना स्वयं का स्वरूप कहना उचित होगा जो उसे सहज व सात्विक आनंद देता है, उसमें आध्यात्मिक आस्था जगाता है। मनोरंजन के साथ ही ये कहानियाँ जीवन के उत्तम और निकृष्ट, प्रशंसनीय और निंदनीय दोनों पहलुओं को दिखाती है, विचारों को गति व प्रेरणा देती हैं।
आज सैकड़ों कहानियाँ लिखी जाती हैं। दैनिक अखबार की कहानियों की जिंदगी एक दिन की साप्ताहिक या मासिक की सप्ताह भर या माह भर की। पुस्तकों की कहानियाँ भी कुछ बुद्धिजीवियों की प्रशंसा पाकर कहीं छिप जाती है। नकारात्मक व दुःखद अन्त के साथ लिखी ये कहानियाँ मानवीय भावनाओं को कुरेदने, झकझोरने, दूसरों को, समाज व देश को दर्पण दिखाने का दावा करती हुई खुद ही दुःखद अन्त को प्राप्त हो जाती है। फूहड़ हास्य या व्यंग्य का तो प्रभाव क्षणिक हँसी के साथ उड़ जाता है। वहीं पौराणिक कथाओं में वह स्वयं को दर्पण दिखाता है। स्वयं के मनोभावों को बदलो तो समाज अपने आप बदल जाएगा।

मैंने अलग-अलग पुराणों में से कुछ कथाएँ चुनी हैं। कुछ कथाएँ प्रचलित कथाओं से अलग लगी। वैसे अलग-अलग पुराणों में एक ही कथा अलग-अलग तरीके से लिखी हुई हैं। जो भाव मुझे भाया मैंने उसे लिया। कहानियों के मूल भाव में कहीं छेड़छाड़ नहीं की, परन्तु हर कहानी के आरम्भ व अन्त में अपनी कल्पना का प्रयोग अवश्य किया है। इनमें से कुछ कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिका नवनीत में प्रकाशित भी हुई हैं। दो कहानियाँ ‘बुरी फँसी लक्ष्मीजी’ व ‘बिगड़ गए गणेश’ किसी पुराण की नहीं हैं। दादी माँ से सुनी कहानियों के भाव को लेकर लिखी हैं। बहुत मनोरंजक लगी तो इनके साथ जोड़ दी।
न मैं कोई बड़ा लेखक हूँ न इन कहानियों से कोई अलग सन्देश देना चाहता हूँ। बस आप एक बार इन्हें पढ़ें और फिर पुराणों की अन्य कथाओं को पढ़ने के लिए आकर्षित हों, यह जरूर चाहता हूँ।
यह मेरा प्रयास मात्र है। आप पढ़कर यदि उचित समझें तो अपनी प्रतिक्रिया अवश्य लिखें। आभारी रहूँगा।

ममता भरे दो ग्रास


शिव ने कहा, ‘‘नहीं कुबेर। गणेश को इस महाभोज में आमन्त्रित करके तुम बहुत परेशान हो जाओगे। इस लम्बोदर गजानन के पेट में गए भोजन का हर अंश संसार के समस्त जीवों को प्राप्त होता है। अतः इसे भरपेट खिलाकर तृप्त कर पाना तुम्हारे लिए असम्भव होगा। यदि यह क्रोधित हो गया तो इसे सँभालना कठिन होगा।’
‘‘आप तनिक भी चिन्ता न करें महादेव, मैं तीनों लोकों के लोगों को महाभोज में आमंत्रित कर रहा हूँ। असीमित भोजन की व्यवस्था होगी। इस भोजन से बालक गणेश का पेट अवश्य भर जाएगा।’’ कुबेर ने मुस्कराकर कहा, उसे शिव की बात विचित्र लगी।
संचय करते-करते कुबेर के पास अथाह धन-सम्पदा एकत्रित हो गई। एक बार उनके मन में विचार आया।

‘‘मेरे पास सात समुद्रों के जल से भी अधिक धन-सम्पदा एकत्रित हो गई है। तीनों लोकों की सम्पूर्ण सम्पदा मिलकर भी इसके अंश मात्र के बराबर नहीं होगी, परन्तु सम्पूर्ण जगत तो इस बात से अनभिज्ञ है। क्यों न मैं एक महाभोज का आयोजन करके तीनों लोकों के सभी श्रेष्ठजनों को आमन्त्रित करूँ। उन्हें बहुमूल्य उपहार देकर सम्मानित करूँ। तभी सारे जगत को मेरे इस अकल्पनीय धन-वैभव का ज्ञान होगा और मुझे भुवन विख्यात महाधनपति होने की ख्याति, सम्मान व गौरव प्राप्त हो जाएगा।’’

कुबेर ने सभी लोकों में निमन्त्रण पत्र भेज दिए और स्वयं शिव को निमंत्रित करने कैलाश पहुँचे। दोनों हाथ जोड़कर बोले-‘‘महादेव, मेरे पास अथाह सम्पदा एकत्रित हो गई है। इस सम्पदा के एक अंश से सभी को कुछ देकर मैं तीनों लोकों को तृप्त करना चाहता हूँ। यज्ञ भाग व सोमरस के लिए देवता, दान पाने के लिए ऋषि-मुनि, धन पाने के लिए मनुष्य आदि सब लालायित रहते हैं। मैंने दीर्घकाल तक चलने वाले एक महाभोज करने का संकल्प लिया है और उसमें जगत के सभी श्रेष्ठ व विशिष्ट लोगों को आमन्त्रित किया है। आपको परिवार सहित आमन्त्रित करने आया हूँ।’’ धन-कुबेर ने कहा।
‘‘लेकिन कुबेर ब्रह्मा की रची सृष्टि में तो प्रत्येक जीव श्रेष्ठ है, फिर महाभोज विशिष्टजनों के लिए ही क्यों ?’’ शिव ने पूछा।
कुबेर सकपका गए बोले, ‘‘महादेव धन के इच्छुकजनों के लिए मैं अन्य समारोह आयोजित करूँगा। मैं उन्हें इतना धन दूँगा कि अनेक पीढ़ियों तक किसी के पास दारिद्रय नहीं फटके। अभी दान लेने और दान देने वालों का सम्मिलित महाभोज उचित नहीं होगा। उत्कृष्ट व हीन होने की भावना पैदा हो जाएगी।’’

कुबेर भूल गए कि उनकी अकूत सम्पदा उन्हें शिव के वरदान से ही मिली है।
शिव समझ गए कि कुबेर अपने ऐश्वर्य व वैभव का प्रदर्शन करना चाहता है। सभी को अपनी सम्पदा दिखाना चाहता है सम्पूर्ण जगत में वह अपने को सर्वश्रेष्ठ धनपति प्रतिष्ठित कर सके। वे मुस्कराए बोले, ‘‘कुबेर तुम्हारा संकल्प निश्चय ही प्रशंसनीय है, परन्तु मैं इस महाभोज में भाग नहीं ले सकता।
दक्ष यज्ञ के बाद मैंने समारोहों में भाग लेना छोड़ दिया है। मेरे बिना देवी पार्वती भी नहीं आएँगी और पार्वती के बिना बच्चे भी नहीं आ सकेंगे, परन्तु मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है। तुम निष्काम भाव से प्रसन्नतापूर्वक यह कार्य करो। याद रखो पवित्र व निर्मल भाव से किया गया अनुष्ठान ही सदा सफल होता है।’’
शिव के इनकार से कुबेर थोड़े दुःखी हुए, शिव यदि समारोह में सम्मिलित हो जाते तो देवताओं में कुबेर की महानता और बढ़ जाती। बोले, ‘‘महादेव मुझे सब कुछ आपके आशीर्वाद से प्राप्त हुआ है। आप बालक गणेश को ही महाभोज में भेज दीजिए। वे आपके प्रतिनिधि और इस महाभोज के प्रथम मुख्य अतिथि होंगे।’’

शिव ने कहा, ‘‘नहीं कुबेर। गणेश को इस महाभोज में आमन्त्रित करके तुम बहुत परेशान हो जाओगे। इस लम्बोदर गजानन के पेट में गए भोजन का हर अंश संसार के समस्त जीवों को प्राप्त होता है। अतः इसे भरपेट खिलाकर तृप्त कर पाना तुम्हारे लिए असम्भव होगा। यदि यह क्रोधित हो गया तो इसे सँभालना कठिन होगा।’’
‘‘आप तनिक भी चिन्ता न करें महादेव, मैं तीनों लोकों के लोगों को महाभोज मैं आमन्त्रित कर रहा हूँ। असीमित भोजन की व्यवस्था होगी। इस भोजन से बालक गणेश का पेट अवश्य भर जाएगा।’’ कुबेर ने मुस्कराकर कहा, उसे शिव की बात विचित्र लगी।
‘‘ठीक है, महाभोज के प्रथम दिन गणेश अवश्य आ जाएगा।’’ शिव ने स्वीकृति दे दी।

कुबेर ने महाभोज के लिए बहुत भव्य व्यवस्था की थी। हिमालय के समीप गंगा के किनारे एक अत्यन्त सुरम्य और विस्तृत क्षेत्र में कुबेर ने विश्वकर्मा से अतिथियों के ठहरने के लिए अगणित भवन बनवाए। उन्हें स्वर्ग से भी सुन्दर साज-सज्जा से सुशोभित करके दुर्लभ सुविधाओं और आमोद-प्रमोद के प्रत्येक साधनों से सम्पन्न कर दिया। स्थान-स्थान पर रेशम के मूल्यवान वस्त्रों आभूषणों, वाद्यों, मणि, मुक्ता, स्वर्ण आदि अनेक प्रकार के अमूल्य उपहारों के ढेर लगा दिए थे ताकि अतिथि अपनी पसन्द से चाहे जितने उपहार ले सकें।
सभी अतिथियों के लिए रत्नजड़ित सोने-चाँदी के पात्रों में भोजन परोसने की व्यवस्था की थी। संसार के श्रेष्ठ रसोइयों ने अनगिनत प्रकार के पकवानों के जैसे पहाड़ खड़े कर दिए थे।
धन कुबेर का आदेश था कि प्रत्येक वस्तु, व्यवस्था व सुविधा ऐसी भव्य, दुर्लभ व अकल्पनीय होनी चाहिए जैसी न अतीत में कभी हुई हो न भविष्य में कभी हो सके। उसने अपने धन भंडार के सभी द्वार खोल दिए थे।
कुबेर ने परिवार सहित शिव पुत्र गणेश का प्रमुख अतिथि के रूप में स्वागत किया, परन्तु गणेश की दिलचस्पी भोजन में अधिक थी। उन्होंने आते ही भोजन की माँग की। गणेश को विशेष कक्ष में बैठकर उनके सामने ढेरों पकवान परोसना शुरू किया गया। गणेश ने भोजन करना आरम्भ किया।

कुछ ही समय में वे सारा भोजन उदरस्थ कर गए। उन्हें और परोसा गया। वे लगातार खाते गए। लोग दौड़-दौड़कर पकवान लाते गए और बालक गणेश बड़े तन्मय होकर भोजन करते गए।
उनके भोजन करने की गति इतनी तीव्र थी कि असंख्य लोगों के लिए तैयार किया गया भोजन कुछ ही समय में उनके पेट में पहुँच गया। वे और भोजन की माँग करने लगे।
कुबेर घबरा गए। उन्होंने तुरन्त और भोजन बनाने का आदेश दिया।
‘‘मैं भोजन आरम्भ करने के बाद प्रतीक्षा नहीं कर सकता।’’ कहकर गणेश थाली पर से उठे, सीधे भंडार गृह में गए। वहाँ कच्चा-पक्का, अधपका जो भी रहा था वह सब उदरस्थ कर गए।
कुबेर के होश उड़ गए। सारे जगत को भोजन करवाकर तृप्त करने का दम्भ करने वाले कुबेर एक बालक का पेट नहीं भर पा रहे थे। सम्पूर्ण भोजन सामग्री समाप्त हो गई थी। सारे अतिथि भूखे बैठे थे। वे हतप्रभ थे। उनसे कहाँ गलती हो गई, वे समझ नहीं पा रहे थे। गणेश शिव शक्ति के प्रतीक थे। यदि शिव क्रोधित हो गए तो उनका भी प्रजापति दक्ष जैसा हश्र हो जाएगा। सोचकर कुबेर मन में काँप उठे।
पेट न भरने से गणेश क्रोधित हो गए। वे गरज उठे, ‘‘कुबेर तुमने मुझे भोजन करने को बुलाया। मुझे भरपेट भोजन दो वरना मैं तुम्हें ही उदरस्थ कर डालूँगा।’’

परन्तु भोजन था कहाँ ? कुबेर डरकर भागे। गणेश भी उनके पीछे दौड़े। बेतहाशा गिरते, पड़ते हाँफते कुबेर कैलाश पर पहुँचे और शिव के पैरों पर गिर पड़े।
‘‘महादेव, मुझे गणेश के क्रोध से बचाइए। मैं उन्हें भरपेट भोजन नहीं करवा सका। मेरा सारा जगत को तृप्त करने का दम्भ-चूर-चूर हो गया। आपकी दी हुई अथाह धन सम्पत्ति पर अभिमान करना मेरा अपराध था। आप मुझे क्षमा करें।’’ कुबेर ने कहा।
गणेश ने आकार शिकायत की, ‘‘पिताजी, निमन्त्रित करके भी कुबेर ने मुझे भरपेट भोजन नहीं करवाया, मुझे कितनी भूख लगी है।’’

शिव हँस पड़े, बोले, ‘‘पुत्र, माता के बिना तुम्हें संसार में कोई तृप्त नहीं कर सकता है। जाओ अन्दर जाकर भोजन करो, माता भोजन बनाकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं।’’
तब तक देवी पार्वती स्वयं भोजन की थाली सजाकर बाहर आ गईं। पार्वती ने बड़े स्नेह से बालक गणेश के सिर पर हाथ फेरा। फिर अपने हाथ से दो ग्रास बालक गणेश को खिलाए। गणेश ने अघाकर डकार ली और तीसरा कौर खाने से इनकार कर दिया। पार्वती पुकारती रहीं, आग्रह करती रहीं, मनाती रहीं, परन्तु गणेश दौड़कर दूर भाग गए।
शिव ने मुस्कराकर कुबेर को देखा, कुबेर ने सिर झुका लिया। बोला, ‘‘सचमुच ख्याति की कामना से परोसे गए मेरे भोजन में यह रस व स्वाद कहाँ था जो इन दो ग्रास में है। मैं ऐश्वर्य के मद में अन्धा कुबेर इतना भी नहीं समझ सका कि तृप्ति स्नेह व निष्काम भाव से मिलती है। मेरे अभिमान ने संसार में मुझे हँसी का पात्र बना दिया।’’
‘‘जाओ कुबेर, धनपति होने के अपने अहं भाव को छोड़कर अतिथियों का सहज भाव से स्वागत-सत्कार करो, वे सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ शिव ने कुबेर से कहा।
कुबेर शिव, उमा व गणेश को प्रणाम करने महाभोज स्थल की ओर दौड़पड़े।
 

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